चंबल घाटी को दस्यु सरगनाओं के आतंक से मुक्ति दिलाने वाले देश के प्रसिद्ध गांधीवादी डॉ. एसएन सुब्बाराव (92) ने बुधवार सुबह जयपुर में अंतिम सांस ली। वे लंबे समय से बीमार थे और जयपुर में एक अस्पताल में भर्ती थे। उनका अंतिम संस्कार गुरुवार सुबह जौरा गांधी आश्रम में किया जाएगा। शोक स्वरूप जौरा का बाजार पूरी तरह से बंद रहेगा। उनकी अंतिम यात्रा में कई स्वतंत्रता सेनानी और जिला प्रशासन के अधिकारी शामिल होंगे।

बताया जाता है कि जब चंबल घाटी में डाकुओं के आतंक से पुलिस भी यहां आने से घबराती थी। ऐसे में डॉ. सुब्बाराव अकेले ही सभी दस्यु सरगनाओं से मिले और उनसे समर्पण करवाकर उन्हें देश की मुख्यधारा में शामिल करवाया। चंबल का गांधी कहे जाने वाले सुब्बाराव ने उस दौर में घाटी में सक्रिय खूंखार दस्यु सरगना माधौ सिंह, मुहर सिंह और मलखान सिंह को गांधी द्वारा दिए गए अहिंसा के सिद्धांतों का पाठ कराया और उनसे समर्पण कराकर उन्हें समाज की मुख्य धारा में शामिल कराया। उस दौर में डॉ. सुब्बाराव के प्रयासों से 600 से ज्यादा डाकुओं ने समर्पण कर दिया था। 

डाकुओं तक पहुंचाए गांधी के सिद्धांत 
उनका जन्म बेंगलुरु में 7 फरवरी 1929 को हुआ था। देश में शांति स्थापना के लिए उन्हें पद्मश्री सहित कई अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किए गए है। दस्यु सरगनाओं तक गांधी के सिद्धांतों को पहुंचाने के लिए उन्होंने जौरा में पहले गांधी आश्रम की स्थापना की थी, जिसके बाद देश-विदेश में 20 से ज्यादा जगहों पर गांधी आश्रमों की स्थापना की गई। 1970 के पहले प्रदेश का हर आदमी चंबल घाटी से गुजरते समय घबराता था। उस दौर में डॉ. एसएन सुब्बाराव ने गांधी के सिद्धांतों पर चलते हुए यहां अपना घर बना लिया था। इस दौरान मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चन्द्र शेट्‌टी, आचार्य विनोवा भावे और स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण ने भी इस काम में उनका पूरा सहयोग दिया और चंबल घाटी को दस्यु आतंक से मुक्त कराने के लिए कई सुविधाओं दस्युओं और उनके परिवारों को दीं।

अकेले ही पहुंच जाते थे दस्युओं के पास 
डाॅ. सुब्बाराव लंबे समय तक डाकुओंं के बीच रहे। वे जंगल में अकेले ही डाकुओं से मिलने चले जाते थे। जब दस्युओं को उनकी बात समझ नहीं आई, तो उनके परिवार वालों को उनके पास लेकर गए। डाकुओं को नए जीवन का भरोसा दिलाया। तत्कालीन सीएम प्रकाश चन्द्र शेट्‌टी के साथ मिलकर डाकुओं के लिए खुली जेल की स्थापना की और उनके ऊपर लगे सभी केस खत्म करवाए। दस्युओं को उनकी जमीनें और खेती बाड़ी वापिस दिलवाई गई। परिवार के सदस्यों को पुलिस में नौकरी दिलवाई गई। उनकी इस पहल ने रंग दिखाया और 70 के दशक में जौरा के पास पगारा गांव में 70 डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया। उन्होंने दस्यु सरगना माधौ सिंह, मुहर सिंह और मलखान सिंह के साथ रहे। वे अकेले ही सभी डाकुओं के पास गए। उस दौर में सबसे ज्यादा भय माधौ सिंह के नाम का था। माधौ सिंह की गैंग में उस समय 400 से ज्यादा सदस्य थे। माधौ सिंह का गैंग चंबल के बीहड़ों में अपना डेरा डाले रहता था, लेकिन डॉ. सुब्बाराव ने अकेले ही दस्युओं और सरकार के मध्य मध्यस्था की।

जियो और जीने दो के सिद्धांत से मुख्यधारा से दस्युओं को जोड़ा 
उन्होंने गांधीजी की विचारधारा जियो और जीने दो को दस्युओं तक पहुंचाया। शुरुआत में दस्यु नहीं माने, लेकिन बार बार समझाने पर और अपने परिजनों की बात को वो टाल न सके और उन्होंने सरकार से मध्यस्थता करने की बात कही। उसके बाद उन्होंने मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकार से बात की और डाकुओं के आत्मसर्मण के लिए शर्त रखीं।


आदिवासियों के लिए भी लड़ी लड़ाई : 
इसके अलावा एसएन सुब्बाराव ने आदिवासियों को भी उनके अधिकार दिलाने के लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने आदिवासियों को पट्‌टा दिलाने की शुरुआत की थी। इसके लिए उन्होंने तीन बार राष्ट्रीय स्तर पर सत्याग्रह किया । ग्वालियर से पैदल-पैदल ही कई बार सत्याग्रहियों के साथ दिल्ली तक गए। उन्होंने आदिवासियों के लिए आदिवासी अधिकार अधिनियम में भी संशोधन कराया।

डॉ. सुब्बाराव को मिले पुरस्कार और सम्मान :
1. जीवनकाल उपलब्धि पुरस्कार(2014)
2. अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए अणुव्रत अहिंसा पुरस्कार
3. महात्मा गांधी पुरस्कार (2008)
4. जमनालाल बजाज पुरस्कार (2006)
5. राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार (2003)
6. विश्वमानवाधिकार प्रोत्साहन पुरस्कार (2002)
7. भारतीय एकता पुरस्कार 
8. काशी विद्यापीठ वाराणसी द्वारा डीलिट की मानद उपाधि (1997)