Deva Sharif Mazar Holi: होली रंगों का त्योहार है। इसमें तरह -तरह के रंग होते है। भाईचारे का प्रतीक लखनऊ से महज 30 किमी दूरी के बाराबंकी के कस्बा देवा में हिंदू-मुस्लिम साथ मिलकर होली खेलते हैं और फाग जुलूस निकालते हैं। कस्बा दवा में सूफी संत हाजी वारिस अली शाह ने होली खेलने और फाग जुलूस को निकालने की परंपरा शुरू की थी। इस परंपरा को आज भी निभाया जा रहा है।
होली को लोग आपसी भाईचारे का त्योहार भी मानते हैं। इस दिन गले मिलकर एक दूसरे को बधाई देकर आपसी द्वेष को लोग खत्म कर देते हैं। होली का त्योहार मथुरा, वृन्दावन और बरसाने की होली को देखने के लिए तो विदेशों से पर्यटक भी आते हैं। होली को शहर हो या गांव हर जगह के लोग अपने खास अंदाज से मानते हैं।
हिंदू-मुस्लिम साथ मिलकर होली खेलते हैं-
बरसाने की लट्ठमार होली तो पूरे देश में विख्यात है, मगर आज हम जिस अद्भु्त होली की बात कर रहे हैं। वह है बाराबंकी स्थित प्रसिद्ध सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की मजार पर खेली जाने वाली होली। लखनऊ से 30 किमी दूरी के बाराबंकी के कस्बा देवा में हिंदू-मुस्लिम साथ मिलकर होली खेलते हैं और फाग जुलूस निकालते हैं। सूफी संत हाजी वारिस अली शाह ने इसकी शुरुआत की थी, उनके निधन के 118 साल बाद भी यह रवायत कायम है।
यहां पर गठित वारसी होली सेवा समिति के अध्यक्ष शहजादे आलम वारसी बताते हैं कि हाजी साहब के मानने वालों में जितने मुस्लिम समुदाय के लोग थे, उतने ही हिंदु संप्रदाय के लोग भी थे। तब उनसे लोग मिलने के लिए प्रतिदिन जाते ही थे, ऐसे में होली के दिन भी लोग मिलने जाते और उनको गुलाल लगाकर उनके साथ फाग खेलते। उसी परंपरा को यहां पर जिंदा रखने की कोशिश करते हैं।
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रामनगर में गरीबी-अमीरी की खाई मिटाने, समानता और सौहार्द बनाए रखने के लिए सुबह से शाम तक रंग खेलने की परंपरा शुरू की गई थी। मोहल्ला लखरौरा की फाग बाबा रामदास के मंदिर से मंडली गाते हुए कस्बे में निकलते हैं। सभी फाग दल बाजार होते हुए अमर सदन राजा की कोठी पर इकट्ठा होते हैं और फाग करते हैं।
हैदरगढ़ तहसील के गुलामाबाद की होलिका को तापने से बीमारी के भागने की मान्यता है। यहां के बुजुर्ग बताते हैं कि कई दशक पहले यहां पर एक फकीर हिमाम सैनी आए और होली दहन की जिम्मेदारी उठाने लगे। वह यहां पर होली तापने आने वाले लोगों का इलाज भी करते थे। वह लोगों को जड़ी-बूटियां भी खाने को देते थे। कई लोग उनके इलाज से ठीक हो गए। हिमाम सैनी की मृत्यु के बाद उनकी समाधि भी इसी स्थान पर बना दी गई।